गुरुवार, 8 सितंबर 2011

अहसास

अम्मा! बचपन से उनको इसी संबोधन से पुकारते हुए सुना है, परिवार के सभी सदस्य, सगे-सम्बन्धी, अड़ोसी-पडोसी, छोटा हो या बड़ा सभी उन्हें इसी नाम से पुकारते हैंअम्मा कहलाना उन्हें इतना पसंद था कि उन्होंने अपने नाती-नातिन को भी इसी संबोधन से पुकारने को कह रखा था अम्मा और झरने में कई समानताएं हैं उनका मन और विचार झरने के जल के सामान स्वच्छ और निर्मल हैं और आज ८० वर्ष पार करने के बाद भी कार्य करने कि इच्छा शक्ति से 'अविरलता' का लोप नहीं हुआ है ग्रामीण परिवेश में पली-बढ़ी और कम पढ़ी-लिखी होने के बावजूद एक ऐसे वक्तित्व की मालकिन, जिसके सामने पढ़े-लिखे व्यक्ति भी बोने नजर आते हैं अपने और इकलौते पुत्र के दम पर उन्होंने अपने परिवार की गाड़ी को खींच कर जहाँ ला खड़ा किया है वो वाकई लोगों के लियें प्रेरणा स्रोत है पर जैसे चाँद में दाग होता है वैसे ही उनमें भी एक अवगुण था जिन्दगी की जद्दोजहद में बीड़ी कब उनके हाथ में आ गयी ये तो अब उन्हें भी ठीक-ठीक याद नहीं है पर मुश्किल हालत में वो उनकी सबसे बड़ी सहेली थी जब भी उन्हें कोई चिंता घेर लेती थी तो बीड़ी पीने आवृति बढ़ जाती थी घर में और कोई इस लत का शिकार नहीं था तो सभी बीड़ी पीने के घोर विरोधी थे और उनकी बीड़ी छुड़ाने के लियें सब एक मत थे हालत सुधरे और उनकी चिंताएं कम हुईं तो कई बार प्रयास किये गए बीड़ी छुड़ाने के लियें मगर परिणाम वही "ढ़ाक के तीन पात" इसी के चलते कई बार माँ-बेटे में कई बार उनबन हुई सख्ती करने पर बीडियों की संख्या घट जाती थी मगर कुछ समय बाद फिर से वही सिलसिला शुरू हो जाता था सबके विरोध की वजह से जब वो सामने नहीं पी पाती थीं तो छुप-छुप के पीना शुरू कर दिया
 डाक्टरों से परिक्षण कराया तो रिपोर्ट नॉर्मल थी कोई खतरे की बात नहीं थी लेकिन ये लत छुड़ाने के लियें उन्हें बताया गया कि बीड़ी छोड़ दो वर्ना मर जल्दी जाओगी कुछ दिन इसका असर रहा पर लत की वजह से एक नया कुतर्क निकल कर सामने आया "अब क्या करना है जी के, मर ही जाऊं तो अच्छा है सभी तरह के हथकंडे अपना के देख लिए पर, ना माँ बीड़ी छोड़ने को तैयार थीं और ना बेटा अपनी छुडवाने की जिद्द पर इस बार बेटे ने आर-पार की लडाई का मन बना लिया था और एक अहिंसावादी हथियार अपनाया, बात-चीत बंद करके यूँ तो पहले भी मन-मुटाव के कारण बोल-चाल बंद हुई थी पर इस कुछ खास अंतर था वो था सुबह की राम-राम, जो पहली बार बंद हुई थी इस बात ने उस माँ का ह्रदय बुरी तरह झकझोर दिया क्योंकि बेटे के होश सँभालने के बाद ये उनकी जिन्दगी का पहले मौका था जब राम नाम का स्वर सबसे पहले उनके बेटे के मुख से नहीं आया पर अभी लत ज्यादा हावी थी सो माँ ने बहू को उलहना दिया, क्या एक बीड़ी की वजह से मैं राम-राम के लायक भी नहीं रही मैने जीवन में जो कुछ किया वो सब एक झटके में भुला दिया बात तो सही थी पर बेटे को बीड़ी छोड़ने से कम कुछ भी मंजूर नहीं था मन-मुटाव तो था पर कोई संवेदनहीन नहीं था दोनों की इक-दूसरे की गतिविधियों पर पैनी नजर थी और बहू के माध्यम से एक दूसरे की जरूरतों का ध्यान भी रखे हुए थे जैसे खाना खाया या नहीं इत्यादि तभी मौसम ने करवट ली और एक विचित्र घटना घटी, घर में बेटे को छोड़ अम्मा समेत सभी को बुखार ने अपनी चपेट में ले लिया सभी ने खाट पकड़ ली, अब सेवा करने वाला घर में केवल एक ही व्यक्ति रह गया था, बेटे ने सब के साथ माँ की भी दिलोजान से सेवा की और वो दिन भी आया जब सब स्वस्थ होकर अपने-अपने काम में लग गए मगर माँ-बेटे की बात-चीत सेवा सुश्रुआ के दौरान भी बंद ही रही अम्मा भी स्वस्थ हो गयीं पर इस घटना ने उनके दिलो-दिमाग पर गहरा असर किया बेटे के इस सेवा के ताप ने माँ के सभी लत से अभिभूत कुतर्कों को कपूर की तरह उड़ा दिया सेवा करके उसने माँ को ये अहसास दिलाया कि उसके रहते उसकी माँ को कोई कष्ट छू भी नहीं सकता, उसे माँ से नहीं वरन घ्रणा है तो बीड़ी से कोई बच्चा सब कुछ सहन कर सकता है पर ये कभी नहीं सह सकता कि माँ के लियें उससे प्यारी भी कोई चीज हो सकती है इस बात का अहसास होते ही माँ के मन में ममता का ऐसा सैलाब उमड़ा जो सब गिले-शिकवे बहा कर ले गया।  दोनों के रिश्ते में विश्वाश का अहसास फिर से जाग गया जिसने इच्छा शक्ति के साथ-साथ बूढ़े हाथों को भी इतना सशक्त कर दिया कि माँ ने बीड़ी का बण्डल तोड़ कर फ़ेंक दिया और भविष्य में कही ना पीने की कसम खायी चाँद में अब भी दाग है पर आज अम्मा का व्यक्तित्व बेदाग है, क्योंकि चाँद के पास ऐसा बेटा नहीं है जिसका विश्वास  महात्मा ध्रुव के सामान अटल हो 
इस अहसास ने अम्मा से वो करवा दिया जो मौत का डर भी ना करवा पाया, अहसास इच्छा शक्ति को ऐसी द्रढ़ता प्रदान करता है जिसके आगे कुछ भी असंभव नहीं होता डाकू रत्नाकर को अपनी भूल का अहसास हुआ तो वो वाल्मीकि बन गए, रत्नावली ने जब अपने पति को उनकी भूल का अहसास दिलाया तो वो तुलसीदास बन गए ये अहसास ही तो है जो हमें इंसान बनता है और महान बनने को प्रेरित करता है

सोमवार, 20 जून 2011

अन्ना, रामदेव और लोकतान्त्रिक राजशाही

पिछले कुछ महीनो से देश में अचानक अजीब सी धटनाएं घट रही हैं/ कभी अन्ना दिल्ली आकर जंतर-मंतर पर अनशन शुरू कर देते हैं तो कभी बाबा रामदेव रामलीला मैदान को अनशनकारियों से पाट देते हैं/ और जनता दोनों के ही साथ खड़ी दिखाई देती है/ आखिर हो क्या गया है देश को? जो मुद्दे संसद भवन में उठने चाहिये थे वो सड़क पर कैसे आ गए? कौन हैं ये लोग जो इन मुद्दों को उठा रहे हैं? ऐसी कौन से मजबूरी आ पड़ी जो जनता अपना काम छोड़ के इनके झंडे तले आ खड़ी हुई है? ऐसे ही बहुत से सवाल एकदम से दिमाग में कौंध जाते हैं/
ये तो मानना ही पड़ेगा की आज भ्रष्टाचार जिस शिखर पर पहुँच चुका है वहां से उसे न केवल हटाना होगा वरन उसका समूल नाश करना होगा/ और इसी मुद्दे के विरुद्ध अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने शंखनाद किया है/ हालाँकि ये भावनाएं आम जनता में भी न जाने कब से पनप रहीं थी मगर उनके पास कोई ऐसा मंच नहीं था और ना ऐसा प्रतिनिधि जो इनकी आवाज इतनी मुखर कर सके कि सत्ता पक्ष के कानो में जा सके/ इन दोनों ने जैसे ही जनता को अवसर प्रदान किया तो उन्होंने इसे हाथो-हाथ लपक लिया और वो भी इनके पीछे हो लिए/ खैर, ये सब तो समझ में आता है लेकिन ऐसा करने जरूरत क्यों पड़ी? ये प्रश्न महत्वपूर्ण है/
इस प्रश्न का उत्तर है कमजोर, स्तरहीन व गैर-जिम्मेवार विपक्ष/ विपक्ष में कोई ऐसा नेता नहीं है जो देश के विकास के लियें गंभीर हो, देशभक्त हो, दूरदर्शी हो और त्यागी हो/ ऐसे विपक्ष के सामने तो सरकार लोकतान्त्रिक तरीके को त्यागकर राजतन्त्र के पथ पर ही चलेगी/ विपक्ष तो महावत के अंकुश की तरह होता है जो सरकार रुपी हाथी को वश में रखता है/ जब अंकुश ही कमजोर हो तो सरकार को मतवाला होने से कौन रोक सकता है/ ये निरंकुशता न केवल केंद्र में है अपितु विभिन्न राज्यों में भी है/ अभी जो कुछ उत्तर प्रदेश के भट्टा-पारसोल गाँव में हुआ, दिल्ली के रामलीला मैदान में हुआ, वो सरकारी निरंकुशता के ताजा-तरीन उदहारण है/ यदि हमारा विपक्ष मजबूत, जिम्मेवार और सकारात्मक होता तो अन्ना हजारे और बाबा रामदेव को ऐसा करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती और ना ये मुद्दे संसद भवन से सड़को पर आते/ इसीलियें जो भी सरकार सत्ता में आती वो सबसे पहले सारी सरकारी मशीनरी विपक्ष को कमजोर करने में लगा देती है ताकि आने वाले ५ सालों तक वो निरंकुशता से अपनी सरकार चला सके/ कुछ राज्यों में तो नेता इससे भी आगे बढ़ गए और विपक्ष को इस बुरी तरह कुचल दिया कि १०-१५ सालों तक लगातार राज करते रहे/ सी. बी. आई. और पुलिस  की हालत तो सरकार के पालतू कुत्ते की तरह हो गयी है जो सिर्फ सरकार के लियें ही भोंकते और काटते है/ इन्हीं सब कारणों से जन्म होता है "लोकतान्त्रिक राजशाही" का, जिसका आधार होता है

  1. जनता से
  2. जनता के द्वारा
  3. अपने और अपनों के लियें
बिहार का लालू राज, हरियाणा का चौटाला राज, बंगाल का कम्युनिस्ट राज, उत्तरप्रदेश में मुलायम हों या मायावती सभी ने लोकतान्त्रिक ढंग से राजशाही ही की है/ तमिलनाडु ने तो विचित्र उदहारण पेश किया है हर ५ साल में सरकार तो बदल जाती है पर सत्ता दो लोगों-जयललिता या करुनानिधि के बीच ही बदलती रहती है/
सरकार ने अन्ना और रामदेव पर आरोप लगाकर जनता को भ्रष्टाचार के मुद्दे से भटकाने की बहुत कशिश की मगर जनता अब ये सब चालें समझ चुकी है और उसके इस कदम ने ये साबित कर दिया है कि अब ऐसा नहीं चलेगा/
जनता को ना अन्ना में दिलचस्पी है ना रामदेव में उनका सीधा-साधा सा एक सूत्री कार्यक्रम है "भ्रष्टाचार-विहीन लोकतंत्र"जिसे अब वो पाकर रहेगी/

मंगलवार, 10 मई 2011

भ्रष्टाचार की खाद- निम्बी

आजकल हर तरफ शोर है भ्रष्टाचार हटाओ! भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंको! पर भ्रष्टाचार का ये पौधा यूँ ही नहीं फला-फूला, इसे हमने इतना खाद-पानी दिया कि वो नन्हा सा पौधा अब विशाल वृक्ष बन गया। आज जब इसकी जड़े हर घर कि चूलें हिलाने लगी है तब कहीं जाकर हमारी तन्द्रा टूटी है। वैसे सही मायनों में ये हमारी तन्द्रा नहीं थी, हमने जान-बूझ कर आपनी आँखें बंद कर रखीं थी क्योंकि इसका असर पडोसी पर था हम पर नहीं। यही सोच तो भ्रष्टाचार कि सबसे बड़ी पोषक है। अंग्रेजी में एक acronym होता है “NIMBY“- Not In My Back Yard जिसका शाब्दिक अर्थ है “मेरे घर के पिछवाड़े नहीं” अर्थात जिसका असर मुझ पर ना पड़े। औरो के लियें तो ये सिर्फ एक शब्द है पर भारतीयों ने इसे एक सिद्धांत के रूप में अपनाया है। यही सिद्धांत ही है भ्रष्टाचार की खाद यानि “निम्बी”
भ्रष्टाचार ही क्या सभी अपराधों का पोषक है ये निम्बी। आप कोई भी समस्या उठा कर देख लें जैसे खचखच भरी बस में २-३ आवारा तत्व आकर किसी भी महिला या लड़की को बेधड़क छेड़ सकते हैं उन्हें पता हैं कि इनमें से कोई नहीं बोलेगा क्योंकि सभी मन, क्रम और वचन से निम्बी सिद्धांत का पालन करते हैं। किसी कार्यालय चले जाइये फाइलों के चट्टे लगे मिलेंगे, सब शॉर्टकट से अपना-अपना काम जल्दी कराने की कोशिश में लगे रहेंगे। किसी भी रेलवे टिकट घर पर चले जाइये, २-४ आदमी लाइन तोड़कर टिकेट लेते हुए मिल ही जायेंगे। कोई विरोध करने की हिम्मत दिखायेगा भी तो कोई उसका साथ नहीं देगा। क्योंकि हम तो निम्बी लोग है यदि हमने साथ दिया तो हमारे सिर मुसीबत ना आ जाये इसलियें दूसरे को करने दो हो गया तो ठीक नहीं तो खड़े ही हैं। पडोसी के घर चोर या बदमाश आ जायें बस अपने को बचाओ जब सब चले जायें तो फिर बात बनाओ “बड़ा बुरा हुआ साब”, “सरकार कुछ करती नहीं” पुलिस वालों को गाली दो और काम खत्म क्योंकि उनका तो घर सुरक्षित है। रिश्वत यदि अपने घर आये तो ऊपर की कमाई और जब देने पड़े तो भ्रष्टाचार। दहेज़ अपने को मिले तो कहते है बाप ने अपनी बेटी को उपहार दिया है पर जब देनी पड़े तो सम्बंधी दहेज़ लोभी।
ऐसी बात नहीं हैं ये सिर्फ आम आदमी तक ही सीमित है वरन राजनीती भी इससे अछूती नहीं है जिसका ताजा-ताजा उदहारण है  जे. पी. सी. की रिपोर्ट। जब तक कांग्रेस जे. पी. सी. के घेरे में नहीं आई थी तब तक जोशी जी एक वरिष्ट, गंभीर और ईमानदार नेता रहे पर जैसे ही प्रधानमंत्री और कुछ उच्च-पदासीन कांग्रेसियों को उन्होंने दोषी करार दिया तुरंत कांग्रेस ने रिपोर्ट को राजनीती से प्रेरित बता दिया और कुचक्र रचकर वोटिंग के जरिये ख़ारिज करा दिया।
ये सब तब तक होता रहेगा जब तक हम इस सिद्धांत पर चलते रहेंगे। जिस दिन हम इसे छोड़ देंगे कोई सामाजिक बुराई पनप ही नहीं पायेगी फिर हमें किसी लोकपाल बिल की भी आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

बुधवार, 4 मई 2011

अमेरिकी गाल पर भारतीय तमाचा

जी हाँ! तमाचा! वो भी इतना भारी कि अमेरिकी राजदूत इस्तीफा देकर घर लौटने की तैयारी में हैं। कल भारत सरकार ने दुनिया के सबसे ताकतवर देश को ऐसा करारा झटका दिया है कि अमेरिकी सरकार सकते में हैं। हो भी क्यों ना, पूरे ४५,००० करोड़ का सौदा हाथ से निकल गया। सौदा भी कौन सा, “रक्षा सौदा” जो अमेरिकी इकॉनोमी का बहुत बड़ा हिस्सा है। जब अमेरिकी राष्ट्रपति भारत आये थे तो तब भी उन्होंने इसके लियें ख़ास पैरवी की थी और मनमोहन सिंह को एक पत्र सौंपा था। जब से ये खबर मीडिया में आई है मेरे कलेजे में ठंडक पड़ गयी है। मैं तो तब से उबल रहा था जब से ओबामा का बयान आया कि लोग इलाज के लियें भारत ना जायें क्योंकि भारत सस्ती व घटिया स्तर की मेडिकल सुविधाएं मुहैया करता है। आज जब भारत की मेडिकल सुविधाओं का डंका सारी दुनिया में बज रहा है ऐसे में ये बयान काफी आपत्तिजनक था। इस बात का प्रमाण तो उस बच्चे के पास मिलेगा, जिसके गले में सरिया घुसने की वजह से जिसकी आवाज और साँस नली अवरूद्ध हो गयी थी। वहां के चिकित्सकों ने सांस लेनें की समस्या तो दूर कर दी थी पर आवाज नहीं लौटा पाए। भारतीय इलाज के बाद उसका पहला वाक्य था “पापा में फिर से बोल सकता हूँ”। ऐसे ना जाने कितने प्रमाण हैं। मगर ओबामा के इस बयान की हकीकत कुछ और ही है। विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा अभी बहुत सी एंटीबॉयोटिक्स बनाने का लाइसेंस रिन्यू होने वाला है और कई भारतीय कम्पनियां इसकी प्रबल दावेदार हैं जिनकी दवाइयां विदेशी कम्पनियों से सस्ती व् विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा मान्यता प्राप्त हैं। इसी लाइसेंस के ठेकों को हथियाने के लियें ये बयानबाजी की गयी थी।
अमेरिका एक पूंजीवादी देश है और अपने हितों को साधने के लियें वो किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। एक वो भी जमाना था जब अमेरिका के कुछ रेस्तराओं में लिखा होता था “Dogs and Indians are not allow” और आज ये वक्त है कि अपनी सरकार बचाने के लियें अमेरिकी राष्ट्रपति को भारत आना पड़ता है और उनकी पत्नी को भारतीय बच्चों के साथ नाचना पड़ता है। भारतीयों ने भी उन्हें निराश नहीं किया, इतने सौदे किये कि अमेरिका में १ लाख से ज्यादा रोजगार के अवसर उपलब्ध हो गए/ क्या फर्क पड़ता है ये तो हमारी परंपरा रही है कोई हमारे दरवाजे पर आकर हमारा या हमारे बच्चों का मनोरंजन करे तो उसे खाली हाथ नहीं लौटाते/
मगर फर्क पड़ता है अमेरिका की दोगली नीतियों से, चाहें पाकिस्तान को लेकर हो या सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता पर, हमेशा भारत को हमेशा धोका और आश्वाशन ही मिला है। मगर अब विश्व पटल पर भारत का कद काफी ऊँचा हो गया है और भारत का बाजार सब के लियें एक “Hot cake” बना हुआ है इसलियें भारत को इस तरहां के झटके देने होंगे जिससे उन्हें अपनी विदेश नीतियों पर फिर से गौर करना पड़े और भारत के साथ बेहतर रिश्ते बनाने के लियें मजबूर होना पड़े। कल की घटना उसी दिशा में पहला कदम है जानकारों के अनुसार तो अभी इस तमाचे की असली गूँज अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में दिखाई देगी। जाते-जाते अमेरिकी राजदूत ये कहना नहीं भूले की हमें काफी निराशा हुए है और हम उम्मीद करते है की भारत इस रक्षा सौदे में ‘पारदर्शिता’ बरतेगा। अरे टिमोथी साहेब, आप जिस पारदर्शिता की तरफ इशारा कर रहे हैं कम से काम अभी वो होना नामुमकिन है। क्योंकि भारतीय अब इसी ‘भ्रष्ट्र पारदर्शिता’ के खिलाफ अन्ना के झंडे तले लामबंद हो चुके हैं। शायद ये इसी का असर है कि भारतीय रक्षा सौदे की खरीद में इतनी पारदर्शिता बरती गयी है और खरीद के मापदंडों को स्वयं सेना के अधिकारियों ने जनता को अवगत कराया। मुझे उम्मीद जगी है कि सरकार अब परमाणु रिएक्टर लगाने के मुद्दे पर भी इतनी ही पारदर्शिता बरतेगी।

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

डर की एकता

जब किसी नस्ल के अस्तित्व पर संकट आता है तो सब अपने मतभेद भुला के एक हो जाते हैं किसी भी प्राकृतिक आपदा के बाद अक्सर ये देखा जा सकता है भारत में भी एक नस्ल संकट में आ गयी है पर ये कोई प्राकृतिक आपदा की वजह से नहीं है इस संकट का नाम है 'अन्ना हजारे' जिसके डर से सारी नेता प्रजाति लामबंद हुई जा रही है डर भी सच्चा है सारा जनादेश उनके खिलाफ होता जा रहा है और यदि इसी तरह से चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब विलासिता भरी जिंदगी जीने वाले हमारे नेतागण जेल की शोभा बढ़ाते हुए नज़र आयें इसी भय के चलते सभी नेताओं के तोते उड़े हुए हैं जबतक केवल सरकार खतरे में थी तो विपक्ष अन्ना के पक्ष में नज़र आया विपक्षी नेताओं ने अन्दर-अन्दर सभाएं की और सारी कुबुद्धि झोंक दी इस मौके को भुनाने की इसके लियें भगवा चोले का सहारा लिया गया और उमा भारती को भेजा गया, सहानुभूति और समर्थन जताने के लियें पर जो कुछ  उमा भारती के साथ हुआ वो सभी ने देखा इस आन्दोलन को पूरी तरह से जन-आन्दोलन बनाये रखा गया और आंदोलनकर्ताओं को इसे राजनीती से दूर रखने में पूरी कामयाबी भी मिली मगर इस तरह से दरकिनार हुई नेता प्रजाति इस बात को हजम नहीं कर पाई, होती भी कैसे आजादी के बाद से इस देश में कभी उनका इतना अनादर नहीं हुआ था लोकतंत्र के नाम पर ये नस्ल इतनी फली-फूली की भगवान बन बैठीकभी उन्हें पैसे तोला गया तो किसी ने उन पर आरतियाँ लिख डालीं, पहले मरणोपरांत उनकी मूर्तियाँ लगती थीं अब तो जीते जी भी वो इस सुख को भोग रहे हैं, उन्हें ये विशवास हो चूका था की ये भोली-भाली जनता उनके बिना एक कदम भी नहीं चल सकती
पर अचानक ये क्या हुआ अर्श से फर्श पर? यहाँ तक तो फिर भी ठीक है, पर अब फर्श से कहाँ? यही सवाल तो पूरी नस्ल को मुंह चिड़ा रहा था पर सभी किंकर्तव्यविमूढ़ थे धीरे-धीरे, अब सभी ने अपने आपसी मतभेद भुला कर लामबंदी शुरू कर दी है और एक-एक करके हमला करना शुरू किया है सबसे पहले आये राजद के रघुनाथ प्रसाद सिंह जिनका ब्यान आप सब ने सुना, फिर कपिल सिब्बल, दिग्गी बाबु, अमर सिंह और अब आडवानी आज तो हद हो गयी जब एक महिला भांड ने भी 'हजारे जी' पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया होता है, कभी-कभी ऐसा भी होता है पर एक बात काबिले-ए-गौर है कि सभी बड़े संभल कर बयान दे रहे हैं और सबके बयानों में एक बात सामान है कि 'मैं अन्ना हजारे जी का बड़ा सम्मान करता हूँ' कोई गलती से भी 'जी' लगाना नहीं भूल रहा, एक ने हद कर दी जब कहा "अन्ना हजारे जी साहेब" क्या करें ना चाहते हुए भी करना पद रहा है जनता के गुस्से को भड़का नहीं सकते ना, एक कहावत है ना "अति भक्ति चोरों का लक्षण" पूरी तरह से चरित्रार्थ हो रही हैमेरी याद में एक बार और ऐसी ही एकता देखने को मिली थी जब टी. एन.  शेषन चुनाव आयुक्त थे और उन्होंने भी भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकने कि कोशिश की थी तब तो सब गीदड़ों ने मिलकर एक शेर को छका दिया थापर क्या अब की बार भी ये कामयाब हो जायेंगे?  क्या हमें वो सुशासन मिल पायेगा जिसकी उम्मीद बंधी है? देखते हैं....

रविवार, 10 अप्रैल 2011

भ्रष्टाचार पर हल्ला बोल-2

पिछले चिट्ठे से आगे......          
              जो कुछ अन्ना और उनके साथियों ने किया, वो बहुत जरूरी था/ उनकी इस पहल से भ्रष्टाचार कुछ समय के लियें शीत निद्रा में चला जायेगा मगर नष्ट नहीं होगा/ वो फिर सर उठाएगा और यदि अभी सही रणनीति नहीं अपनाई गयी तो फिर वही स्थिति हो जाएगी/ अन्धकार में एक खासियत होती है कि सूर्य के आते ही ये कहीं दूर घने जंगलो, कंदराओं में छुप जाता है और जैसे-जैसे सूर्य का प्रकाश क्षीण होता जाता है वैसे-वैसे अन्धकार फिर अपना कब्ज़ा जमाता जाता है/ ठीक यही प्रवृति शत्रु कि होती है वो भी मौके की तलाश में रहता है और मौका मिलते ही वार करता है/ भ्रष्टाचार भी हमारे समाज का एक विकट शत्रु है/
           एक बात तो तय है की हमने इसे अभी बढने से रोक दिया है पर इसे जड़ से मिटने के लियें हमें पहले अपने गिरबान में झांकना होगा/ क्योंकि सरकार अकेली कुछ नहीं कर सकती और न कानून बना देने से ही ये समस्या हल हो जाएगी/ इसके लियें मेरे पास कुछ उपाय हैं मगर इनकी सफलता की गारंटी 'समग्रता' में है मेरे कहने का मतलब है कि ये प्रयास एक साथ सभी को करने पड़ेंगा जैसे

  1. सबसे पहले अपने घर को भ्रष्टाचार से मुक्त करना होगा/ लड़के और लड़की के बीच खाने-पीने के चीजों होने वाले पक्षपात को भी मैने भ्रष्टाचार की क्ष्रेणी में रखा है/  बच्चों के सामने इमानदारी की मिसाल रखनी होगी जिससे उन्हें प्रेरणा मिले/
  2. किसी भी भ्रष्टाचार, पक्षपात या गलत कार्य की घोर निंदा करनी चाहिए, जिससे बच्चों में ये प्रवृत्ति ना पनपे/
  3. भ्रष्टाचार के दोहरे पैमाने को छोड़ना होगा/ ज्यादातर ऐसा होता है जब भ्रष्टाचार करने से हमे फायदा होता हो या हमारा कोई अपना सगा-सम्बन्धी भ्रष्टाचारी है तो हमें बुरा नहीं लगता, तो ये सब अब बंद करना होगा/
  4. ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार हो जो गलत तरीके से धनोपार्जन करते हों/ ऐसे घरों से विवाह सम्बन्ध ना बनाएं जायें जहाँ पर पैसा भ्रष्टाचार के माध्यम से आता है जहाँ तक में समझता हूँ ये भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति रोकने का सबसे बेहतरीन तरीका होगा/
  5. स्कूलों में नैतिक शिक्षा का लगभग लोप हो गया है उसे फिर से जीवित करना होगा
  6. प्राथमिक शिक्षकों को नैतिक रूप से सशक्त करना होगा और उनके पद को उच्च शिक्षा से कहीं ज्यादा महत्त्व देना होगा, जिसके लियें उनके वेतनमान को आकर्षक बनाना पड़ेगा/ 
ये कुछ ऐसे उपाय हैं जिन्हें ईमानदारी से अपनाने से समाज में भ्रष्टाचार को पनपने का मौका ही नहीं मिलेगा/ और हम एक सशक्त, ईमानदार और अग्रणी भारत वर्ष की कल्पना कर सकते हैं/ मेरे इन विचारों से यदि कोई असहमत हो या कुछ और जोड़ना चाहे तो उनके सुझावों का स्वागत है/

भ्रष्टाचार पर हल्ला बोल-1

भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार!!! हर तरफ इसी की चर्चा है हो भी क्यों ना, आखिर सभी त्रस्त हो चुके हैं इससे सामाजिक कार्यकर्त्ता हों या बाबा रामदेव सभी अपने-अपने ढंग से विरोध कर रहे थे पर ये किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि किस तरह से इसे एक राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर, एक मंच से इसके खिलाफ लड़ा जाये तभी अन्ना लोकपाल बिल का मुद्दा लेकर जंतर-मंतर पर आमरण अनशन के लियें आये तो जैसे सभी को एक रास्ता मिल गया अलग-थलग पड़े इन भ्रष्टाचार विरोधियों को एक मंच मिल गया पूरे भारत से लोग जुड़ गए, विरोध की इन छोटी-छोटी धाराओं ने मिलकर एक ऐसी नदी का निर्माण कर दिया जिसके उफान के सामने किसी कि नहीं चली, सरकार के बड़े-बड़े वकील, कानून के ज्ञाता सब स्तब्ध रह गए और वही हुआ जो लोग चाहते थे इतिहास गवाह है, किसी जन आन्दोलन कभी इतनी बड़ी सफलता नहीं मिली ये भारत वर्ष के लियें हर्ष की बात है भ्रष्टाचार पर इतना सुनियोजित और सफल हमला शायद कभी नहीं हुआ डिस्कवरी चैनल पर शेरों को शिकार करते हुए देखा था कुछ-कुछ वैसा ही यहाँ देखने को मिला पहले भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार के खिलाफ बाबा रामदेव और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने वाक्-युद्ध  छेड़ा फिर उसे चारों तरफ से घेर लिया गया, मगर सरकार अपने मद में चूर थी इसलियें उसने पहले की ही तरह इसे अनदेखा कर दिया मगर फिर एक सही वक्त पर ऐसा विकट हमला हुआ कि सरकार चारों-खाने चित हो गयी कपिल सिब्बल हों या वीरप्पा मोइली सभी की सिट्टी-पिट्टी गुम है "दिग्गी" तो कहाँ पूंछ दबा कर छुप गयें हैं कुछ पता नहीं अन्दर से ना सही पर ऊपर से सरकार यही दिखाने की कोशिश कर रही है कि वो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनता के साथ हैं पर उनके पार्टी प्रवक्ताओं के चेहरे से खौफ और खीज के भाव आसानी से पढ़े जा सकतें हैं
सभी इस जीत का रसास्वादन कर रहे हैं पर क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ ये आखरी लड़ाई थी? क्या इससे भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा? और यदि नहीं तो इसका हल क्या है? फ़िलहाल इतना ही बाकी फिर लिखूंगा
क्रमश:

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

टाइम नहीं है यार!


बहुत busy था! सांस लेने की भी फुर्सत नहीं मिली!
अक्सर ये जुमले आपको सुनने को मिलेंगे खासकर मध्यम वर्गीय परिवार के लोग इनका इस्तेमाल ज्यादा करते हैं कारण ये है कि बड़े लोगों का काम तो वक्त पर ही होता है और निम्न स्तरीय लोगों के पास वक्त इतना है कि काटे नहीं कटता  है ना कमाल की बात, किसी के पास वक्त ही वक्त है और किसी को सांस लेने कि भी फुर्सत नहीं है पर आश्चर्य कि बात ये है कि बड़े (सफल) लोगों को ये एक्स्ट्रा टाइम, देता कौन है? मैंने इस बारे में काफी सोचा और इस पहेली को सुलझाने कि कोशिश की कहाँ तक सफल रहा हूँ ये तो अब आप लोग ही बता सकते हैं

ये बात तो तय है कि सब के पास २४ घंटे ही होते हैं पर जो बात किसी व्यक्ति को सफल बनाती है, वो है कार्य के वरीयता कर्म का निर्धारण, सर्वोच्च वरीयता वाले कार्य को हम लक्ष्य भी कहते हैं इसी लक्ष्य को पाने का एक महत्वपूर्ण सूत्र है "समय प्रबंधन" ये ही वो दो बातें हैं जो किसी भी व्यक्ति को सफल बना सकती हैं आप खुद भी अपनी किसी सफलता के बारे में सोचेंगे तो यही पायेंगे की उस वक्त आपने इन्हीं दो नियमों का पालन किया था
सफलता = लक्ष्य निर्धारण + समय प्रबंधन
मुझे भी याद आ रहा है एक बार मैने भी इसी सूत्र का इस्तेमाल किया था  बात उन दिनों की है जब में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, दिल्ली में काम करता था इसके लिए मुझे रोज सुबह ५ बजे उठाना होता था ताकि ९.३० बजे तक कार्यालय पहुँच सकूं शाम को घर पहुँचते-पहुँचते ९-९.३० बज जाते थे सारा समय यात्रा में निकल जाता था (जिसमें लगभग ६ घंटे रेल में गुजरते थे) पढने के लियें समय नहीं मिल पाता था मुझे तो विदेश जाना था और ये सब मेरे इस लक्ष्य प्राप्ति के लियें घातक था अब मैं एक दैनिक यात्री था तो अपना एक ग्रुप बन गया था  बाकी लोगों के पास इस तरह का कोई लक्ष्य नहीं था तो उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि उनका कितना वक्त बर्बाद हो रहा है एक ने हिसाब लगा के बताया कि वो २० साल से ट्रेन से सफ़र कर रहा है और ६ घंटे के हिसाब से इन २० सालों में ५ साल का समय तो उसने रेल में ही गुजारा है इस बात ने तो मुझे और परेशान कर दिया वहां (दिल्ली ) रह कर भी देखा बात नहीं बनी रेल में नोट्स लेकर भी नहीं पढ़ सकता था पर कहते हैं "आवश्यकता अविष्कार कि जननी है" मेरी इसी आवश्यकता ने मुझे एक युक्ति सुझाई  कि क्यों न mp3 का इस्तमाल किया जाये तो सब काम बन जायेगा बस फिर क्या था रोज कुछ नोट्स कि MP3 फ़ाइल बनाता और सफ़र के दौरान सुनता रहता गजब का परिणाम आया जिन चीजो को याद करने में वक्त काफी वक्त लगता था वो एक गाने कि तरह आसानी से कंठस्थ होने लगीं और उसी का परिणाम है कि आज मैं South Korea में हूँ यदि आप भी इसी तरह कि समस्या से परेशान हैं तो आप भी इसी युक्ति का प्रयोग कर सकते हैं विद्यार्थियों के लियें तो ये रामबाण साबित होगी इसी का प्रयोग कर मेरे एक जूनियर ने TOFEL GRE पास किया और आज  ताइवान से Ph.D. कर रहा है कल, जब एक माँ अपनी बिटिया की १२ की परीक्षा के लियें चिंतित दिखीं तो मैंने सोचा  क्यों न इसे सब के साथ बांटा जाये ताकि और भी इससे लाभान्वित हो सकें

भाई मेरे हिसाब से तो सफलता की कुंजी यही है कोई भी व्यक्ति कितना सफल हुआ है या होगा, ये निर्भर करता है, उसके लक्ष्य निर्धारण और सफल समय प्रबंधन पर अपने भूतकाल में जाओगे तो पाओगे कि हम और बेहतर कर सकते थे और जहाँ पहुंचे हैं उससे कहीं बेहतर प्राप्त कर सकते थे तो आज से ही ये कोशिश करो कि इन जुमलों का प्रयोग ना करना पड़े और हो सके तो मेरे इस सूत्र और युक्ति को कम से कम अपने घर के विद्यार्थियों तक जरूर पहुंचाएं

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

सचिन को भारत रत्न

आजकल, ये एक जबरदस्त मुद्दा बना हुआ है कि सचिन को भारत रत्न मिलना चाहिए/ बिलकुल सही बात है मेरे विचार में भी वो इसके हकदार हैं/ क्रिकेट इतिहास में वो ही एक मात्र ऐसे खिलाडी हैं जिन्होंने  २०० रन का जादूई आकड़ा छूआ है और भी न जाने कितने कीर्तिमान उनके नाम दर्ज हैं जिन्हें दोहराने कि आवशयकता नहीं है/ हालाँकि, वो ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं, पर क्रिकेट के बारे में वो गहरी पेंठ रखते हैं/ क्रिकेट जगत में शायद ही कोई हो, जो उनकी प्रतिभा का कायल ना हुआ हो, सर डोन ब्रेडमेन भी उनमें से एक हैं/ पर जो बात उन्हें ब्रेडमेन से भी महान बनाती है, वो है, "१०० करोड़ लोगों कि उम्मीदों के दवाब को सफलतापूर्वक झेलना"/ आज कि परिस्थितियों में खेल जगत से यदि किसी को चुना जा सकता है, तो निस्संदेह! वो हैं "सचिन तेंदुलकर"
पर यदि भारत के, अबतक के खेल इतिहास पर नज़र डाली जाये तो आप पाएंगे १ और खिलाडी भी है जो इसका हकदार है/ वो हैं भारत को हॉकी में ३ बार ओलंपिक गोल्ड दिलाने वाले "मेजर ध्यान 'चंद' सिंह " (उर्फ़ 'दादा')/ यदि सचिन को "क्रिकेट का भगवान्" कहा जाता है तो उन्हें भी "हॉकी का जादूगर" कहते हैं/ एक और बात जो दोनों में समान है वो ये की ब्रेडमेन ने दोनों को खेलते देखा था और दोनों की ही तारीफ़ की थी/ १९३५ में, ब्रेडमेन ने 'दादा' का मैच देखने के बाद कहा " he scores goals like runs in Cricket". ये बात भी सही है वो हॉकी में गोलों का शतक  लगाने वाले एकमात्र खिलाडी हैं/ यदि सचिन ३७ साल में भी खेल रहे हैं तो उनका कैरियर भी काफी लम्बा था और ४२ साल की उम्र तक वो खेलते रहे जहाँ क्रिकेट से कहीं ज्यादा दम-ख़म की आवश्यकता होती है/ कहतें हैं, "जादू वही जो सर चढ़के बोले", कई बार उनकी हॉकी स्टिक तोड़कर देखी गयी क्योंकि जिस तरहा से गेंद उनकी हॉकी से चिपकती थी उससे उन्हें भ्रम हो जाता था कि उनकी स्टिक में चुम्बक है/ वो ये भी भूल गए कि चुम्बक सिर्फ लोहे को आकर्षित करती है और हॉकी की गेंद में लोहा नहीं होता, यही था "दादा" का जादू/
दोनों ही अपने फन के माहिर हैं किसी की भी उपलब्धियों को काम करके नहीं आँका जा सकता मेरी राय में तो यदि सचिन भारत रत्न पाने के हकदार हैं तो दादा को उनसे पहले मिलना चाहिए/

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

ब्राह्मण और क्रोध


'बिच्छू डंक ना मारे' और 'ब्राह्मण क्रोधी ना हो' ऐसा कभी हो सकता है क्या? असंभव!!! क्रोध और ब्राह्मण का तो चोली-दामन का साथ है और अब तो ब्राह्मणों का ये एक मौलिक गुण बन गया है इस मौलिकता के स्टार आइकॉन हैं "दुर्वासा ऋषि" कहते हैं "क्रोध पराजय का पहला लक्षण है" तो फिर ये अवगुण एक विद्वान्, विवेकी और अध्यापन करने वाले मनुष्य में कैसे प्रवेश कर गया? ये प्रश्न दिमाग में आते ही, मैं निकल पड़ा अपने अर्जित ज्ञान की छोटी से लालटेन लेकर, ब्राह्मणों के उस अतीत में, जहाँ मेरे इस प्रश्न का उत्तर मिल सके यूँ तो क्रोध में आकर शाप देने कई धटनाएं याद आ रही हैं पर मेरी राय में जो जिस व्यक्ति ने क्रोध को एक विचारधारा का रूप दिया वो हैं "परशुराम" उनके पिता "यमदग्नि" एक महान ऋषि थे और धर्म संसद के सप्त ऋषियों में से एक थे उनकी राय में ब्राह्मणों का कार्य था, अध्धयन और अध्यापन इसीलियें सहस्त्रबाहू उनके आश्रम जलाता रहा और वो अपना नया आश्रम बनाते रहे पर परशुराम की राय उनसे सर्वदा अलग थी, उनके अनुसार यदि आवश्यकता पड़े तो ब्राह्मण को भी शास्त्र उठाना चाहिए और कभी-कभी आक्रमण से भी शांति स्थापित की जा सकती है इसी मतान्तर के चलते उन्हें अपने पिता का आश्रम छोड़ना पड़ा पर वो आपनी राय पर अडिग रहे बाद में जो कुछ उनके साथ घटा उससे ऋषि यमदग्नि भी उनके दोनों तर्कों पर सहमत हो गए और उन्होंने भी हथियार उठाया शायद यही वो एतिहासिक घटना थी जिसने ब्राह्मण को क्रोधी और आक्रामक बनाया ये उस वक्त तार्किक रूप सही भी था मगर क्या ब्राह्मणों को इसे अपनी मौलिकता बना लेना चाहिए था? क्या क्षत्रियों के नाश के साथ क्रोध और आक्रामकता पर अंकुश नहीं लगाना चाहिए था? आक्रामकता से जब सफलता मिल जाती है तो यही क्रोध कब अहंकार में परिवर्तित हो जाता है पता ही नहीं चलता अहंकार सबसे पहला हमला विवेक पर करता है और विवेकहीन मनुष्य कभी सही-गलत में विभेद नहीं कर पता यही हुआ परशुराम जी के साथ भी, उनके इसी अहंकार को तोड़ने के लियें स्वयं नारायण को आना पड़ा जिन्होंने शिव धनुष तोड़कर उनके अहंकार का नाश किया
जब मैंने दोनों घटनाओं का विश्लेषण किया तो पाया क्रोध और आक्रामकता की आवशयकता तो पड़ती है पर इसे एक शास्त्र की तरह इस्तेमाल करो अपनी मौलिकता ना बनाओ परशुराम जी का उद्धार तो श्री राम ने कर दिया, पर पहले तो सिर्फ एक परशुराम थे मगर अब तो हर  ब्राह्मण परशुराम बना घूम रहा है वैसे भी जब इस कलयुग में गंगा शिव प्रतिमा बहा ले जाती है ऐसे में नारायण के अवतार लेने की तो उम्मीद ही नहीं है तो हे! ब्राह्मणों क्रोध को पालना सीखो इसे काबू में रखो इसके वशीभूत होकर कार्य मत करो ये एक परमाणु शक्ति की तरह है इसे शांति और प्रगति के कार्यों में इस्तेमाल करो ना कि अपने विनाश के लियें

पति कैसे बनता है!