जी हाँ! तमाचा! वो भी इतना भारी कि अमेरिकी राजदूत इस्तीफा देकर घर लौटने की तैयारी में हैं। कल भारत सरकार ने दुनिया के सबसे ताकतवर देश को ऐसा करारा झटका दिया है कि अमेरिकी सरकार सकते में हैं। हो भी क्यों ना, पूरे ४५,००० करोड़ का सौदा हाथ से निकल गया। सौदा भी कौन सा, “रक्षा सौदा” जो अमेरिकी इकॉनोमी का बहुत बड़ा हिस्सा है। जब अमेरिकी राष्ट्रपति भारत आये थे तो तब भी उन्होंने इसके लियें ख़ास पैरवी की थी और मनमोहन सिंह को एक पत्र सौंपा था। जब से ये खबर मीडिया में आई है मेरे कलेजे में ठंडक पड़ गयी है। मैं तो तब से उबल रहा था जब से ओबामा का बयान आया कि लोग इलाज के लियें भारत ना जायें क्योंकि भारत सस्ती व घटिया स्तर की मेडिकल सुविधाएं मुहैया करता है। आज जब भारत की मेडिकल सुविधाओं का डंका सारी दुनिया में बज रहा है ऐसे में ये बयान काफी आपत्तिजनक था। इस बात का प्रमाण तो उस बच्चे के पास मिलेगा, जिसके गले में सरिया घुसने की वजह से जिसकी आवाज और साँस नली अवरूद्ध हो गयी थी। वहां के चिकित्सकों ने सांस लेनें की समस्या तो दूर कर दी थी पर आवाज नहीं लौटा पाए। भारतीय इलाज के बाद उसका पहला वाक्य था “पापा में फिर से बोल सकता हूँ”। ऐसे ना जाने कितने प्रमाण हैं। मगर ओबामा के इस बयान की हकीकत कुछ और ही है। विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा अभी बहुत सी एंटीबॉयोटिक्स बनाने का लाइसेंस रिन्यू होने वाला है और कई भारतीय कम्पनियां इसकी प्रबल दावेदार हैं जिनकी दवाइयां विदेशी कम्पनियों से सस्ती व् विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा मान्यता प्राप्त हैं। इसी लाइसेंस के ठेकों को हथियाने के लियें ये बयानबाजी की गयी थी।
अमेरिका एक पूंजीवादी देश है और अपने हितों को साधने के लियें वो किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। एक वो भी जमाना था जब अमेरिका के कुछ रेस्तराओं में लिखा होता था “Dogs and Indians are not allow” और आज ये वक्त है कि अपनी सरकार बचाने के लियें अमेरिकी राष्ट्रपति को भारत आना पड़ता है और उनकी पत्नी को भारतीय बच्चों के साथ नाचना पड़ता है। भारतीयों ने भी उन्हें निराश नहीं किया, इतने सौदे किये कि अमेरिका में १ लाख से ज्यादा रोजगार के अवसर उपलब्ध हो गए/ क्या फर्क पड़ता है ये तो हमारी परंपरा रही है कोई हमारे दरवाजे पर आकर हमारा या हमारे बच्चों का मनोरंजन करे तो उसे खाली हाथ नहीं लौटाते/
मगर फर्क पड़ता है अमेरिका की दोगली नीतियों से, चाहें पाकिस्तान को लेकर हो या सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता पर, हमेशा भारत को हमेशा धोका और आश्वाशन ही मिला है। मगर अब विश्व पटल पर भारत का कद काफी ऊँचा हो गया है और भारत का बाजार सब के लियें एक “Hot cake” बना हुआ है इसलियें भारत को इस तरहां के झटके देने होंगे जिससे उन्हें अपनी विदेश नीतियों पर फिर से गौर करना पड़े और भारत के साथ बेहतर रिश्ते बनाने के लियें मजबूर होना पड़े। कल की घटना उसी दिशा में पहला कदम है जानकारों के अनुसार तो अभी इस तमाचे की असली गूँज अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में दिखाई देगी। जाते-जाते अमेरिकी राजदूत ये कहना नहीं भूले की हमें काफी निराशा हुए है और हम उम्मीद करते है की भारत इस रक्षा सौदे में ‘पारदर्शिता’ बरतेगा। अरे टिमोथी साहेब, आप जिस पारदर्शिता की तरफ इशारा कर रहे हैं कम से काम अभी वो होना नामुमकिन है। क्योंकि भारतीय अब इसी ‘भ्रष्ट्र पारदर्शिता’ के खिलाफ अन्ना के झंडे तले लामबंद हो चुके हैं। शायद ये इसी का असर है कि भारतीय रक्षा सौदे की खरीद में इतनी पारदर्शिता बरती गयी है और खरीद के मापदंडों को स्वयं सेना के अधिकारियों ने जनता को अवगत कराया। मुझे उम्मीद जगी है कि सरकार अब परमाणु रिएक्टर लगाने के मुद्दे पर भी इतनी ही पारदर्शिता बरतेगी।
अमेरिका एक पूंजीवादी देश है और अपने हितों को साधने के लियें वो किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। एक वो भी जमाना था जब अमेरिका के कुछ रेस्तराओं में लिखा होता था “Dogs and Indians are not allow” और आज ये वक्त है कि अपनी सरकार बचाने के लियें अमेरिकी राष्ट्रपति को भारत आना पड़ता है और उनकी पत्नी को भारतीय बच्चों के साथ नाचना पड़ता है। भारतीयों ने भी उन्हें निराश नहीं किया, इतने सौदे किये कि अमेरिका में १ लाख से ज्यादा रोजगार के अवसर उपलब्ध हो गए/ क्या फर्क पड़ता है ये तो हमारी परंपरा रही है कोई हमारे दरवाजे पर आकर हमारा या हमारे बच्चों का मनोरंजन करे तो उसे खाली हाथ नहीं लौटाते/
मगर फर्क पड़ता है अमेरिका की दोगली नीतियों से, चाहें पाकिस्तान को लेकर हो या सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता पर, हमेशा भारत को हमेशा धोका और आश्वाशन ही मिला है। मगर अब विश्व पटल पर भारत का कद काफी ऊँचा हो गया है और भारत का बाजार सब के लियें एक “Hot cake” बना हुआ है इसलियें भारत को इस तरहां के झटके देने होंगे जिससे उन्हें अपनी विदेश नीतियों पर फिर से गौर करना पड़े और भारत के साथ बेहतर रिश्ते बनाने के लियें मजबूर होना पड़े। कल की घटना उसी दिशा में पहला कदम है जानकारों के अनुसार तो अभी इस तमाचे की असली गूँज अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में दिखाई देगी। जाते-जाते अमेरिकी राजदूत ये कहना नहीं भूले की हमें काफी निराशा हुए है और हम उम्मीद करते है की भारत इस रक्षा सौदे में ‘पारदर्शिता’ बरतेगा। अरे टिमोथी साहेब, आप जिस पारदर्शिता की तरफ इशारा कर रहे हैं कम से काम अभी वो होना नामुमकिन है। क्योंकि भारतीय अब इसी ‘भ्रष्ट्र पारदर्शिता’ के खिलाफ अन्ना के झंडे तले लामबंद हो चुके हैं। शायद ये इसी का असर है कि भारतीय रक्षा सौदे की खरीद में इतनी पारदर्शिता बरती गयी है और खरीद के मापदंडों को स्वयं सेना के अधिकारियों ने जनता को अवगत कराया। मुझे उम्मीद जगी है कि सरकार अब परमाणु रिएक्टर लगाने के मुद्दे पर भी इतनी ही पारदर्शिता बरतेगी।
बेहतरीन अभिव्यक्ति
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