शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

मेरा हिंदी प्रेम

कई दोस्तों ने कहा कि ब्लॉग क्यों नहीं लिखते, टाल जाता था हर बार| पर जब से बिग-बी (बड़े भाई) का ब्लॉग पढना शुरू किया है तो मुझे भी लगता है फार्मविल्ले खेलने से कहीं ज्यादा अच्छा है विचारों को कागज पर उकेरना/ उन्होंने लिखा था "लेखन तो लेखन है, इतना आसां नहीं है" मैं भी जानना चाहता हूँ आखिर कितना मुश्किल है विचारों की उफनती नदी पर बांध बनाना / सो तैयार हूँ मैं, देखतें हैं क्या-क्या निकलता है मेरे इस विचार मंथन से/

हिंदी में ही लिखुंगा, मातृ-भाषा है….. पर एक और खास वजह भी है मेरे इस, हिंदी प्रेम की/ वो ये कि हिंदी मैंने अपनी माता जी से सीखी है, सो जब भी हिंदी पढता या लिखता हूँ माँ चुपचाप आकर मेरे सिरहाने बैठ जाती है/ लोगों का तो एकलबंध है हिंदी से, मेरा तो द्विबन्ध बन गया है/ आज भी याद है मुझे मेरे घर की वो बैठक, वो ठंडा-ठंडा फर्श और फर्श के बीचों-बीच बनी वो नीली सफ़ेद रंगोली जहाँ परीक्षा के वक्त माँ पढ़ातीं थी/ भारत में परीक्षाएं गर्मियों के आस-पास ही होतीं हैं तो जब भी हिंदी या संस्कृत की परीक्षा आती थी तो पिताश्री के सख्त आदेश जारी हो जाते थे "भई आज से तुम घर का कोई काम नहीं करोगी बस इसको हिंदी की तैयारी कराओ कोई कमी न रह जाये" बस फिर क्या था मेरे लिए तो सारा आलम हिन्दीमयी हो जाता था माँ समझाती रहती थीं और मैं बैठक के ठंडे फर्श पर लेटा हुआ आत्मसात करता रहता था/ कमाल तो ये था कि जो गूढ़ अर्थ स्कूल में सारे साल में समझ नहीं आते थे वे एक-दो दिन में ही मस्तिष्क में इस तरह लिख दिए जाते थे कि आज भी उतने ही तरोताजा हैं/ जैसे "जो गूंगे मीठे फल को रस अन्तरंग ही भावे", "जब छल का धृतराष्ट्र आलिंगन करे तो पुतला ही आगे बढ़ाना चाहिए"/ गद्य हो या पद्य, सारांश लिखना हो या व्याख्या जो पकड़ तब बन गयी सो बन गयी/ बारहवीं कक्षा के बाद फिर कभी उस ढंग से पढने मौका ही नहीं मिला, और अब तो चाह कर भी हिंदी में नहीं लिख सकता- कार्य-क्षेत्र ही ऐसा है/ पर ब्लॉग लिखना विचारों कि अभिव्यक्ति का एक ऐसा माध्यम है जिससे मेरी दोनों समस्या- हिंदी प्रेम और समय कि बहुलता, हल हो सकती हैं/ तो हमने भी शुरू कर दी है............चिठ्ठेबाजी!!!!!!
उम्मीद है आप सब को पसंद आएगी, पसंद आये तो क्या करना है आप समझदार हो .........

बुधवार, 25 अगस्त 2010

क्या लौटेगा मेरा बचपन


जिन्दगी के इतने साल कैसे निकल जातें हैं पता ही नहीं चलता/ पहले पढने-लिखने की जद्दोजहद फिर कुछ बनने की आस/ जिन्दगी की इसी उधेड़-बुन में बचपन कब रोते-बिलखते सो जाता है याद नहीं रहता/ ऐसा नहीं है  के उसे फिर से उठाने का मौका नहीं मिलता पर तब तक इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा के कारण जिन्दगी इतनी मैली हो चुकी होती है शायद हिम्मत नहीं होती उस सुन्दर, सरल, निष्पाप और बेफिक्र दुनिया में जाने की और खुद से आँख मिलाने की
पर जब से कोरिया आया हूँ पहले से ज्यादा सोचने लगा हूँ  सीधा- कारण है- भाषा अवरोध/ वो लोग इंग्लिश भी ठीक तरह से नहीं जानते तो हिंदी का तो प्रश्न ही नहीं उठता, परिणाम- वक्त की बहुलता/ मेरा मानना हैं कि शरीर में दो चीजे हैं जो वक्त के साथ- चलती रहती हैं- मस्तिक्ष और ह्रदय, रूकती हैं तो जिन्दगी रुक जाती है/ और खालीपन मस्तिष्क की उर्वता को और बढ़ा देता है यहाँ के लोग अपने काम के प्रति बेहद इमानदार हैं और सबसे बड़ी बात है कि ईर्षाभाव नहीं हैं/ काम के प्रति तो मैं हमेशा से ईमानदार रहा हूँ (हा हा हा...) और द्वेष के लियें यहाँ कोई है नहीं लिहाजा मेरा जो कुछ भी मैलापन था दूर हो गया/ अभी कुछ वक्त है!! पर महसूस कर रहा हूँ अपने अन्दर मेरा सोया बचपन भी अंगडाई लेकर उठने को है, तैयार हूँ!!! मैं भी, दोनों हाथ फैलाये, उसे गले लगाने को................................
सनसनी पर सुना था
"चैन से सोना है तो जाग जाईये" पर मैं तो कहता हूँ
"आनंद से जीना है तो सोये बचपन को जगाइए"