शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

टाइम नहीं है यार!


बहुत busy था! सांस लेने की भी फुर्सत नहीं मिली!
अक्सर ये जुमले आपको सुनने को मिलेंगे खासकर मध्यम वर्गीय परिवार के लोग इनका इस्तेमाल ज्यादा करते हैं कारण ये है कि बड़े लोगों का काम तो वक्त पर ही होता है और निम्न स्तरीय लोगों के पास वक्त इतना है कि काटे नहीं कटता  है ना कमाल की बात, किसी के पास वक्त ही वक्त है और किसी को सांस लेने कि भी फुर्सत नहीं है पर आश्चर्य कि बात ये है कि बड़े (सफल) लोगों को ये एक्स्ट्रा टाइम, देता कौन है? मैंने इस बारे में काफी सोचा और इस पहेली को सुलझाने कि कोशिश की कहाँ तक सफल रहा हूँ ये तो अब आप लोग ही बता सकते हैं

ये बात तो तय है कि सब के पास २४ घंटे ही होते हैं पर जो बात किसी व्यक्ति को सफल बनाती है, वो है कार्य के वरीयता कर्म का निर्धारण, सर्वोच्च वरीयता वाले कार्य को हम लक्ष्य भी कहते हैं इसी लक्ष्य को पाने का एक महत्वपूर्ण सूत्र है "समय प्रबंधन" ये ही वो दो बातें हैं जो किसी भी व्यक्ति को सफल बना सकती हैं आप खुद भी अपनी किसी सफलता के बारे में सोचेंगे तो यही पायेंगे की उस वक्त आपने इन्हीं दो नियमों का पालन किया था
सफलता = लक्ष्य निर्धारण + समय प्रबंधन
मुझे भी याद आ रहा है एक बार मैने भी इसी सूत्र का इस्तेमाल किया था  बात उन दिनों की है जब में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, दिल्ली में काम करता था इसके लिए मुझे रोज सुबह ५ बजे उठाना होता था ताकि ९.३० बजे तक कार्यालय पहुँच सकूं शाम को घर पहुँचते-पहुँचते ९-९.३० बज जाते थे सारा समय यात्रा में निकल जाता था (जिसमें लगभग ६ घंटे रेल में गुजरते थे) पढने के लियें समय नहीं मिल पाता था मुझे तो विदेश जाना था और ये सब मेरे इस लक्ष्य प्राप्ति के लियें घातक था अब मैं एक दैनिक यात्री था तो अपना एक ग्रुप बन गया था  बाकी लोगों के पास इस तरह का कोई लक्ष्य नहीं था तो उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि उनका कितना वक्त बर्बाद हो रहा है एक ने हिसाब लगा के बताया कि वो २० साल से ट्रेन से सफ़र कर रहा है और ६ घंटे के हिसाब से इन २० सालों में ५ साल का समय तो उसने रेल में ही गुजारा है इस बात ने तो मुझे और परेशान कर दिया वहां (दिल्ली ) रह कर भी देखा बात नहीं बनी रेल में नोट्स लेकर भी नहीं पढ़ सकता था पर कहते हैं "आवश्यकता अविष्कार कि जननी है" मेरी इसी आवश्यकता ने मुझे एक युक्ति सुझाई  कि क्यों न mp3 का इस्तमाल किया जाये तो सब काम बन जायेगा बस फिर क्या था रोज कुछ नोट्स कि MP3 फ़ाइल बनाता और सफ़र के दौरान सुनता रहता गजब का परिणाम आया जिन चीजो को याद करने में वक्त काफी वक्त लगता था वो एक गाने कि तरह आसानी से कंठस्थ होने लगीं और उसी का परिणाम है कि आज मैं South Korea में हूँ यदि आप भी इसी तरह कि समस्या से परेशान हैं तो आप भी इसी युक्ति का प्रयोग कर सकते हैं विद्यार्थियों के लियें तो ये रामबाण साबित होगी इसी का प्रयोग कर मेरे एक जूनियर ने TOFEL GRE पास किया और आज  ताइवान से Ph.D. कर रहा है कल, जब एक माँ अपनी बिटिया की १२ की परीक्षा के लियें चिंतित दिखीं तो मैंने सोचा  क्यों न इसे सब के साथ बांटा जाये ताकि और भी इससे लाभान्वित हो सकें

भाई मेरे हिसाब से तो सफलता की कुंजी यही है कोई भी व्यक्ति कितना सफल हुआ है या होगा, ये निर्भर करता है, उसके लक्ष्य निर्धारण और सफल समय प्रबंधन पर अपने भूतकाल में जाओगे तो पाओगे कि हम और बेहतर कर सकते थे और जहाँ पहुंचे हैं उससे कहीं बेहतर प्राप्त कर सकते थे तो आज से ही ये कोशिश करो कि इन जुमलों का प्रयोग ना करना पड़े और हो सके तो मेरे इस सूत्र और युक्ति को कम से कम अपने घर के विद्यार्थियों तक जरूर पहुंचाएं

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

सचिन को भारत रत्न

आजकल, ये एक जबरदस्त मुद्दा बना हुआ है कि सचिन को भारत रत्न मिलना चाहिए/ बिलकुल सही बात है मेरे विचार में भी वो इसके हकदार हैं/ क्रिकेट इतिहास में वो ही एक मात्र ऐसे खिलाडी हैं जिन्होंने  २०० रन का जादूई आकड़ा छूआ है और भी न जाने कितने कीर्तिमान उनके नाम दर्ज हैं जिन्हें दोहराने कि आवशयकता नहीं है/ हालाँकि, वो ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं, पर क्रिकेट के बारे में वो गहरी पेंठ रखते हैं/ क्रिकेट जगत में शायद ही कोई हो, जो उनकी प्रतिभा का कायल ना हुआ हो, सर डोन ब्रेडमेन भी उनमें से एक हैं/ पर जो बात उन्हें ब्रेडमेन से भी महान बनाती है, वो है, "१०० करोड़ लोगों कि उम्मीदों के दवाब को सफलतापूर्वक झेलना"/ आज कि परिस्थितियों में खेल जगत से यदि किसी को चुना जा सकता है, तो निस्संदेह! वो हैं "सचिन तेंदुलकर"
पर यदि भारत के, अबतक के खेल इतिहास पर नज़र डाली जाये तो आप पाएंगे १ और खिलाडी भी है जो इसका हकदार है/ वो हैं भारत को हॉकी में ३ बार ओलंपिक गोल्ड दिलाने वाले "मेजर ध्यान 'चंद' सिंह " (उर्फ़ 'दादा')/ यदि सचिन को "क्रिकेट का भगवान्" कहा जाता है तो उन्हें भी "हॉकी का जादूगर" कहते हैं/ एक और बात जो दोनों में समान है वो ये की ब्रेडमेन ने दोनों को खेलते देखा था और दोनों की ही तारीफ़ की थी/ १९३५ में, ब्रेडमेन ने 'दादा' का मैच देखने के बाद कहा " he scores goals like runs in Cricket". ये बात भी सही है वो हॉकी में गोलों का शतक  लगाने वाले एकमात्र खिलाडी हैं/ यदि सचिन ३७ साल में भी खेल रहे हैं तो उनका कैरियर भी काफी लम्बा था और ४२ साल की उम्र तक वो खेलते रहे जहाँ क्रिकेट से कहीं ज्यादा दम-ख़म की आवश्यकता होती है/ कहतें हैं, "जादू वही जो सर चढ़के बोले", कई बार उनकी हॉकी स्टिक तोड़कर देखी गयी क्योंकि जिस तरहा से गेंद उनकी हॉकी से चिपकती थी उससे उन्हें भ्रम हो जाता था कि उनकी स्टिक में चुम्बक है/ वो ये भी भूल गए कि चुम्बक सिर्फ लोहे को आकर्षित करती है और हॉकी की गेंद में लोहा नहीं होता, यही था "दादा" का जादू/
दोनों ही अपने फन के माहिर हैं किसी की भी उपलब्धियों को काम करके नहीं आँका जा सकता मेरी राय में तो यदि सचिन भारत रत्न पाने के हकदार हैं तो दादा को उनसे पहले मिलना चाहिए/

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

ब्राह्मण और क्रोध


'बिच्छू डंक ना मारे' और 'ब्राह्मण क्रोधी ना हो' ऐसा कभी हो सकता है क्या? असंभव!!! क्रोध और ब्राह्मण का तो चोली-दामन का साथ है और अब तो ब्राह्मणों का ये एक मौलिक गुण बन गया है इस मौलिकता के स्टार आइकॉन हैं "दुर्वासा ऋषि" कहते हैं "क्रोध पराजय का पहला लक्षण है" तो फिर ये अवगुण एक विद्वान्, विवेकी और अध्यापन करने वाले मनुष्य में कैसे प्रवेश कर गया? ये प्रश्न दिमाग में आते ही, मैं निकल पड़ा अपने अर्जित ज्ञान की छोटी से लालटेन लेकर, ब्राह्मणों के उस अतीत में, जहाँ मेरे इस प्रश्न का उत्तर मिल सके यूँ तो क्रोध में आकर शाप देने कई धटनाएं याद आ रही हैं पर मेरी राय में जो जिस व्यक्ति ने क्रोध को एक विचारधारा का रूप दिया वो हैं "परशुराम" उनके पिता "यमदग्नि" एक महान ऋषि थे और धर्म संसद के सप्त ऋषियों में से एक थे उनकी राय में ब्राह्मणों का कार्य था, अध्धयन और अध्यापन इसीलियें सहस्त्रबाहू उनके आश्रम जलाता रहा और वो अपना नया आश्रम बनाते रहे पर परशुराम की राय उनसे सर्वदा अलग थी, उनके अनुसार यदि आवश्यकता पड़े तो ब्राह्मण को भी शास्त्र उठाना चाहिए और कभी-कभी आक्रमण से भी शांति स्थापित की जा सकती है इसी मतान्तर के चलते उन्हें अपने पिता का आश्रम छोड़ना पड़ा पर वो आपनी राय पर अडिग रहे बाद में जो कुछ उनके साथ घटा उससे ऋषि यमदग्नि भी उनके दोनों तर्कों पर सहमत हो गए और उन्होंने भी हथियार उठाया शायद यही वो एतिहासिक घटना थी जिसने ब्राह्मण को क्रोधी और आक्रामक बनाया ये उस वक्त तार्किक रूप सही भी था मगर क्या ब्राह्मणों को इसे अपनी मौलिकता बना लेना चाहिए था? क्या क्षत्रियों के नाश के साथ क्रोध और आक्रामकता पर अंकुश नहीं लगाना चाहिए था? आक्रामकता से जब सफलता मिल जाती है तो यही क्रोध कब अहंकार में परिवर्तित हो जाता है पता ही नहीं चलता अहंकार सबसे पहला हमला विवेक पर करता है और विवेकहीन मनुष्य कभी सही-गलत में विभेद नहीं कर पता यही हुआ परशुराम जी के साथ भी, उनके इसी अहंकार को तोड़ने के लियें स्वयं नारायण को आना पड़ा जिन्होंने शिव धनुष तोड़कर उनके अहंकार का नाश किया
जब मैंने दोनों घटनाओं का विश्लेषण किया तो पाया क्रोध और आक्रामकता की आवशयकता तो पड़ती है पर इसे एक शास्त्र की तरह इस्तेमाल करो अपनी मौलिकता ना बनाओ परशुराम जी का उद्धार तो श्री राम ने कर दिया, पर पहले तो सिर्फ एक परशुराम थे मगर अब तो हर  ब्राह्मण परशुराम बना घूम रहा है वैसे भी जब इस कलयुग में गंगा शिव प्रतिमा बहा ले जाती है ऐसे में नारायण के अवतार लेने की तो उम्मीद ही नहीं है तो हे! ब्राह्मणों क्रोध को पालना सीखो इसे काबू में रखो इसके वशीभूत होकर कार्य मत करो ये एक परमाणु शक्ति की तरह है इसे शांति और प्रगति के कार्यों में इस्तेमाल करो ना कि अपने विनाश के लियें

पति कैसे बनता है!