सोमवार, 20 जून 2011

अन्ना, रामदेव और लोकतान्त्रिक राजशाही

पिछले कुछ महीनो से देश में अचानक अजीब सी धटनाएं घट रही हैं/ कभी अन्ना दिल्ली आकर जंतर-मंतर पर अनशन शुरू कर देते हैं तो कभी बाबा रामदेव रामलीला मैदान को अनशनकारियों से पाट देते हैं/ और जनता दोनों के ही साथ खड़ी दिखाई देती है/ आखिर हो क्या गया है देश को? जो मुद्दे संसद भवन में उठने चाहिये थे वो सड़क पर कैसे आ गए? कौन हैं ये लोग जो इन मुद्दों को उठा रहे हैं? ऐसी कौन से मजबूरी आ पड़ी जो जनता अपना काम छोड़ के इनके झंडे तले आ खड़ी हुई है? ऐसे ही बहुत से सवाल एकदम से दिमाग में कौंध जाते हैं/
ये तो मानना ही पड़ेगा की आज भ्रष्टाचार जिस शिखर पर पहुँच चुका है वहां से उसे न केवल हटाना होगा वरन उसका समूल नाश करना होगा/ और इसी मुद्दे के विरुद्ध अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने शंखनाद किया है/ हालाँकि ये भावनाएं आम जनता में भी न जाने कब से पनप रहीं थी मगर उनके पास कोई ऐसा मंच नहीं था और ना ऐसा प्रतिनिधि जो इनकी आवाज इतनी मुखर कर सके कि सत्ता पक्ष के कानो में जा सके/ इन दोनों ने जैसे ही जनता को अवसर प्रदान किया तो उन्होंने इसे हाथो-हाथ लपक लिया और वो भी इनके पीछे हो लिए/ खैर, ये सब तो समझ में आता है लेकिन ऐसा करने जरूरत क्यों पड़ी? ये प्रश्न महत्वपूर्ण है/
इस प्रश्न का उत्तर है कमजोर, स्तरहीन व गैर-जिम्मेवार विपक्ष/ विपक्ष में कोई ऐसा नेता नहीं है जो देश के विकास के लियें गंभीर हो, देशभक्त हो, दूरदर्शी हो और त्यागी हो/ ऐसे विपक्ष के सामने तो सरकार लोकतान्त्रिक तरीके को त्यागकर राजतन्त्र के पथ पर ही चलेगी/ विपक्ष तो महावत के अंकुश की तरह होता है जो सरकार रुपी हाथी को वश में रखता है/ जब अंकुश ही कमजोर हो तो सरकार को मतवाला होने से कौन रोक सकता है/ ये निरंकुशता न केवल केंद्र में है अपितु विभिन्न राज्यों में भी है/ अभी जो कुछ उत्तर प्रदेश के भट्टा-पारसोल गाँव में हुआ, दिल्ली के रामलीला मैदान में हुआ, वो सरकारी निरंकुशता के ताजा-तरीन उदहारण है/ यदि हमारा विपक्ष मजबूत, जिम्मेवार और सकारात्मक होता तो अन्ना हजारे और बाबा रामदेव को ऐसा करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती और ना ये मुद्दे संसद भवन से सड़को पर आते/ इसीलियें जो भी सरकार सत्ता में आती वो सबसे पहले सारी सरकारी मशीनरी विपक्ष को कमजोर करने में लगा देती है ताकि आने वाले ५ सालों तक वो निरंकुशता से अपनी सरकार चला सके/ कुछ राज्यों में तो नेता इससे भी आगे बढ़ गए और विपक्ष को इस बुरी तरह कुचल दिया कि १०-१५ सालों तक लगातार राज करते रहे/ सी. बी. आई. और पुलिस  की हालत तो सरकार के पालतू कुत्ते की तरह हो गयी है जो सिर्फ सरकार के लियें ही भोंकते और काटते है/ इन्हीं सब कारणों से जन्म होता है "लोकतान्त्रिक राजशाही" का, जिसका आधार होता है

  1. जनता से
  2. जनता के द्वारा
  3. अपने और अपनों के लियें
बिहार का लालू राज, हरियाणा का चौटाला राज, बंगाल का कम्युनिस्ट राज, उत्तरप्रदेश में मुलायम हों या मायावती सभी ने लोकतान्त्रिक ढंग से राजशाही ही की है/ तमिलनाडु ने तो विचित्र उदहारण पेश किया है हर ५ साल में सरकार तो बदल जाती है पर सत्ता दो लोगों-जयललिता या करुनानिधि के बीच ही बदलती रहती है/
सरकार ने अन्ना और रामदेव पर आरोप लगाकर जनता को भ्रष्टाचार के मुद्दे से भटकाने की बहुत कशिश की मगर जनता अब ये सब चालें समझ चुकी है और उसके इस कदम ने ये साबित कर दिया है कि अब ऐसा नहीं चलेगा/
जनता को ना अन्ना में दिलचस्पी है ना रामदेव में उनका सीधा-साधा सा एक सूत्री कार्यक्रम है "भ्रष्टाचार-विहीन लोकतंत्र"जिसे अब वो पाकर रहेगी/