मंगलवार, 10 मई 2011

भ्रष्टाचार की खाद- निम्बी

आजकल हर तरफ शोर है भ्रष्टाचार हटाओ! भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंको! पर भ्रष्टाचार का ये पौधा यूँ ही नहीं फला-फूला, इसे हमने इतना खाद-पानी दिया कि वो नन्हा सा पौधा अब विशाल वृक्ष बन गया। आज जब इसकी जड़े हर घर कि चूलें हिलाने लगी है तब कहीं जाकर हमारी तन्द्रा टूटी है। वैसे सही मायनों में ये हमारी तन्द्रा नहीं थी, हमने जान-बूझ कर आपनी आँखें बंद कर रखीं थी क्योंकि इसका असर पडोसी पर था हम पर नहीं। यही सोच तो भ्रष्टाचार कि सबसे बड़ी पोषक है। अंग्रेजी में एक acronym होता है “NIMBY“- Not In My Back Yard जिसका शाब्दिक अर्थ है “मेरे घर के पिछवाड़े नहीं” अर्थात जिसका असर मुझ पर ना पड़े। औरो के लियें तो ये सिर्फ एक शब्द है पर भारतीयों ने इसे एक सिद्धांत के रूप में अपनाया है। यही सिद्धांत ही है भ्रष्टाचार की खाद यानि “निम्बी”
भ्रष्टाचार ही क्या सभी अपराधों का पोषक है ये निम्बी। आप कोई भी समस्या उठा कर देख लें जैसे खचखच भरी बस में २-३ आवारा तत्व आकर किसी भी महिला या लड़की को बेधड़क छेड़ सकते हैं उन्हें पता हैं कि इनमें से कोई नहीं बोलेगा क्योंकि सभी मन, क्रम और वचन से निम्बी सिद्धांत का पालन करते हैं। किसी कार्यालय चले जाइये फाइलों के चट्टे लगे मिलेंगे, सब शॉर्टकट से अपना-अपना काम जल्दी कराने की कोशिश में लगे रहेंगे। किसी भी रेलवे टिकट घर पर चले जाइये, २-४ आदमी लाइन तोड़कर टिकेट लेते हुए मिल ही जायेंगे। कोई विरोध करने की हिम्मत दिखायेगा भी तो कोई उसका साथ नहीं देगा। क्योंकि हम तो निम्बी लोग है यदि हमने साथ दिया तो हमारे सिर मुसीबत ना आ जाये इसलियें दूसरे को करने दो हो गया तो ठीक नहीं तो खड़े ही हैं। पडोसी के घर चोर या बदमाश आ जायें बस अपने को बचाओ जब सब चले जायें तो फिर बात बनाओ “बड़ा बुरा हुआ साब”, “सरकार कुछ करती नहीं” पुलिस वालों को गाली दो और काम खत्म क्योंकि उनका तो घर सुरक्षित है। रिश्वत यदि अपने घर आये तो ऊपर की कमाई और जब देने पड़े तो भ्रष्टाचार। दहेज़ अपने को मिले तो कहते है बाप ने अपनी बेटी को उपहार दिया है पर जब देनी पड़े तो सम्बंधी दहेज़ लोभी।
ऐसी बात नहीं हैं ये सिर्फ आम आदमी तक ही सीमित है वरन राजनीती भी इससे अछूती नहीं है जिसका ताजा-ताजा उदहारण है  जे. पी. सी. की रिपोर्ट। जब तक कांग्रेस जे. पी. सी. के घेरे में नहीं आई थी तब तक जोशी जी एक वरिष्ट, गंभीर और ईमानदार नेता रहे पर जैसे ही प्रधानमंत्री और कुछ उच्च-पदासीन कांग्रेसियों को उन्होंने दोषी करार दिया तुरंत कांग्रेस ने रिपोर्ट को राजनीती से प्रेरित बता दिया और कुचक्र रचकर वोटिंग के जरिये ख़ारिज करा दिया।
ये सब तब तक होता रहेगा जब तक हम इस सिद्धांत पर चलते रहेंगे। जिस दिन हम इसे छोड़ देंगे कोई सामाजिक बुराई पनप ही नहीं पायेगी फिर हमें किसी लोकपाल बिल की भी आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

बुधवार, 4 मई 2011

अमेरिकी गाल पर भारतीय तमाचा

जी हाँ! तमाचा! वो भी इतना भारी कि अमेरिकी राजदूत इस्तीफा देकर घर लौटने की तैयारी में हैं। कल भारत सरकार ने दुनिया के सबसे ताकतवर देश को ऐसा करारा झटका दिया है कि अमेरिकी सरकार सकते में हैं। हो भी क्यों ना, पूरे ४५,००० करोड़ का सौदा हाथ से निकल गया। सौदा भी कौन सा, “रक्षा सौदा” जो अमेरिकी इकॉनोमी का बहुत बड़ा हिस्सा है। जब अमेरिकी राष्ट्रपति भारत आये थे तो तब भी उन्होंने इसके लियें ख़ास पैरवी की थी और मनमोहन सिंह को एक पत्र सौंपा था। जब से ये खबर मीडिया में आई है मेरे कलेजे में ठंडक पड़ गयी है। मैं तो तब से उबल रहा था जब से ओबामा का बयान आया कि लोग इलाज के लियें भारत ना जायें क्योंकि भारत सस्ती व घटिया स्तर की मेडिकल सुविधाएं मुहैया करता है। आज जब भारत की मेडिकल सुविधाओं का डंका सारी दुनिया में बज रहा है ऐसे में ये बयान काफी आपत्तिजनक था। इस बात का प्रमाण तो उस बच्चे के पास मिलेगा, जिसके गले में सरिया घुसने की वजह से जिसकी आवाज और साँस नली अवरूद्ध हो गयी थी। वहां के चिकित्सकों ने सांस लेनें की समस्या तो दूर कर दी थी पर आवाज नहीं लौटा पाए। भारतीय इलाज के बाद उसका पहला वाक्य था “पापा में फिर से बोल सकता हूँ”। ऐसे ना जाने कितने प्रमाण हैं। मगर ओबामा के इस बयान की हकीकत कुछ और ही है। विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा अभी बहुत सी एंटीबॉयोटिक्स बनाने का लाइसेंस रिन्यू होने वाला है और कई भारतीय कम्पनियां इसकी प्रबल दावेदार हैं जिनकी दवाइयां विदेशी कम्पनियों से सस्ती व् विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा मान्यता प्राप्त हैं। इसी लाइसेंस के ठेकों को हथियाने के लियें ये बयानबाजी की गयी थी।
अमेरिका एक पूंजीवादी देश है और अपने हितों को साधने के लियें वो किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। एक वो भी जमाना था जब अमेरिका के कुछ रेस्तराओं में लिखा होता था “Dogs and Indians are not allow” और आज ये वक्त है कि अपनी सरकार बचाने के लियें अमेरिकी राष्ट्रपति को भारत आना पड़ता है और उनकी पत्नी को भारतीय बच्चों के साथ नाचना पड़ता है। भारतीयों ने भी उन्हें निराश नहीं किया, इतने सौदे किये कि अमेरिका में १ लाख से ज्यादा रोजगार के अवसर उपलब्ध हो गए/ क्या फर्क पड़ता है ये तो हमारी परंपरा रही है कोई हमारे दरवाजे पर आकर हमारा या हमारे बच्चों का मनोरंजन करे तो उसे खाली हाथ नहीं लौटाते/
मगर फर्क पड़ता है अमेरिका की दोगली नीतियों से, चाहें पाकिस्तान को लेकर हो या सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता पर, हमेशा भारत को हमेशा धोका और आश्वाशन ही मिला है। मगर अब विश्व पटल पर भारत का कद काफी ऊँचा हो गया है और भारत का बाजार सब के लियें एक “Hot cake” बना हुआ है इसलियें भारत को इस तरहां के झटके देने होंगे जिससे उन्हें अपनी विदेश नीतियों पर फिर से गौर करना पड़े और भारत के साथ बेहतर रिश्ते बनाने के लियें मजबूर होना पड़े। कल की घटना उसी दिशा में पहला कदम है जानकारों के अनुसार तो अभी इस तमाचे की असली गूँज अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में दिखाई देगी। जाते-जाते अमेरिकी राजदूत ये कहना नहीं भूले की हमें काफी निराशा हुए है और हम उम्मीद करते है की भारत इस रक्षा सौदे में ‘पारदर्शिता’ बरतेगा। अरे टिमोथी साहेब, आप जिस पारदर्शिता की तरफ इशारा कर रहे हैं कम से काम अभी वो होना नामुमकिन है। क्योंकि भारतीय अब इसी ‘भ्रष्ट्र पारदर्शिता’ के खिलाफ अन्ना के झंडे तले लामबंद हो चुके हैं। शायद ये इसी का असर है कि भारतीय रक्षा सौदे की खरीद में इतनी पारदर्शिता बरती गयी है और खरीद के मापदंडों को स्वयं सेना के अधिकारियों ने जनता को अवगत कराया। मुझे उम्मीद जगी है कि सरकार अब परमाणु रिएक्टर लगाने के मुद्दे पर भी इतनी ही पारदर्शिता बरतेगी।